Thursday, February 11, 2010

मेरा नाम खान तो नहीं है...

जब मैं बारहवी में था तो जिस कालोनी में रहा करता था वहां खेल का एक बड़ा मैदान था... हम वहां क्रिकेट खेला करते थे... एक लड़का वहां खेलने आया करता था, किसी बड़े मिनिस्टर का बेटा था... एक दिन तीन बार वो जीरो पर आउट हुआ ... उसने अगले दिन कहा यहाँ अब फूटबाल खेला जाएगा... मना करने पर उसका कहना था ये खेलो या कुछ नहीं खेलने दूंगा .... मरते क्या न करते वहां फूटबाल खेला जाने लगा... कुछ हम जैसे थे जिन्होंने खेलना ही छोड़ दिया ....
बात बहुत पुरानी है लेकिन आज फिर याद aayi है... शायद उस लड़के का चेहरा मुझे आज फिर टीवी पर नज़र आया... nahin uska chehra nahin tha... kisi aur ka tha... kisi thackre ka... lekin khel bhi waisa hi tha... maidan bhi... aur zid bhi... iss baar bhi khelna chod du kya doston kya kehte ho... kya kiya jaye...

1 comment:

आलोक साहिल said...

ज़रूरी तो नहीं, हर बार उसकी बात मानी ही जाए...जब मैं नवीं में पढ़ता था...तो मेरे स्कूल में भी एक ऐसा ही डॉन हुआ करता था...जिसकी बड़ी धाक हुआ करती थी...मैं स्कूल में नया था...मुझे नहीं पता था...उसके रूतबे के बारे में...बाकी सब जानते थे...जब मैं अपने मां बदौलत वाले रूप में आया, तो सभी मुझे पढ़ने-लिखने वाला बच्चा समझकर समझाने लगे...कि मेरा ऐसा क्या-क्या है, जो वह उखाड़ लेगा...लेकिन उन्हें नहीं पता था..शेर को मात देने के लिए हरबार हथियार नहीं, गूदे की ज़रूरत होती है...दूसरे दिन से वही अमित, द डॉन...मेरे अच्छे शुभचिंतकों में शामिल हो गया...
बात डेयर करने की है...डेयर, उनका बहिष्कार करने का...
चार साल पहले प्रवीण तोगड़िया भी बहुत बड़बड़ाते थे...उंगलियां नचा-नचाकर भौकालबाजी करते थे...लेकिन मुद्दत हो गए...मुझे तो अब उनकी सूरतभी याद नहीं...